चचा की जेएनयू चाय......
ठंड खत्म होने से पहले ही उमस बढ़ाने वाली गर्मी की दोपहरी को चचा कलूराम के टपरे पर चाय पी रहे थे। चाय का पहला घूट पीते हुए ही चचा की जीभ जरा जल गई। बस फिर क्या था। चचा चालू हो गए। कलूराम तुम्हारी चाय भी ना जेएनयू की तरह हो गई है। ना जाने कितनों की जीभ जला रही है। नाम सुनते ही लोग बड़बड़ाने लगते हैं। अब तुम्हारी चाय भी चायविरोधी हो गई है। चाय के नाम पर कलंक है तुम्हारी चाय। कलूराम, पर चचा चाय तो गर्म ही होती है आपको ही सोच समझकर पीना थी ना , आप बस हो हल्ला मचाने लग गए। अच्छा मैं हो हल्ला मचा रहा हूं, मैं नासमझ हूं...मैं ना समझुं तो बुरा और सरकार ना समझे तो अच्छा। अरे सरकार भी तो समझ सकती थी ना कि , छात्र युवा हैं थोड़ी गर्मी तो होगी ही। समझा बुझाकर मना लेते इतना बवाल ही ना मचता। लेकिन नहीं कुछ विकास ना कर पाए तो बवाल तो करना ही है। बिल्कुल मेरी तरह जब पैसे ना देना हो तो चीखना चिल्लाना शुरु कर दो। और तुम भी तो पैसे ना दो तो मौहल्ले के काले कलूटे लठेतों को बुला लेते हो। जैसे सरकार ने काले कोट वालों को बच्चों को पीटने बुला लिया था। और हां तुम्हारे पड़ोसी भी तो इतनी सी बात क...