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ये संवेदनाओं की हत्या का दौर है!

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जब तक हमारा दिल धड़कता रहता है कहां जाता है तब तक हम जिंदा हैं और जब किसी के दुख दर्द में संवेदनाएं हैं तब कर हम इंसान है। गोयकि वो दिल की धड़कन हमारी संचेतना व संवेदना का ही प्रतीक है लेकिन हम जिस दौर में जी रहे हैं वो संवेदनाओं की हत्या का दौर है। क्योंकि जब आप खुद से दूर हो जाते हैं तब किसी के पास नहीं हो सकते या कहें किसी के नहीं हो सकते। आंख बंद करके सोचेंगे तो पाएंगे की हम सच में किसी के नहीं हैं। हम जीना तो चाहते हैं पर जिंदगी असल में है क्या इसका हमें पता नहीं? हम जानना भी नहीं चाहते। बस दौडऩा चाहते हैं। बदलना चाहते हैं। कभी खुद को। कभी खुद की प्राथमिकताओं को। यही अंजाना पर हमें खुद से दूर करता है इतना कि हम इंसान हीं नहीं रहते सिर्फ मशीन होते हैं। जिसे सिर्फ काम से मतलब है। हम उसी दिन से मरने लगते हैं जब जिंदगी और रिस्तों को व्यवसाय बना देते हैं। सबकुछ स्वार्थ पर टिका होता है। जो मेरे जितना काम का वो उतना करीब। सोचिए! हम अपने मां-बाप को भी पराया करने में एक क्षण नहीं सोचते। ये अनाथालय और आøम संवेदनाओं की हत्या से ही पैदा होते हैं। सुबह से अखबार खोलते हैं तो लगता है कही...