ये संवेदनाओं की हत्या का दौर है!


जब तक हमारा दिल धड़कता रहता है कहां जाता है तब तक हम जिंदा हैं और जब किसी के दुख दर्द में संवेदनाएं हैं तब कर हम इंसान है। गोयकि वो दिल की धड़कन हमारी संचेतना व संवेदना का ही प्रतीक है लेकिन हम जिस दौर में जी रहे हैं वो संवेदनाओं की हत्या का दौर है। क्योंकि जब आप खुद से दूर हो जाते हैं तब किसी के पास नहीं हो सकते या कहें किसी के नहीं हो सकते। आंख बंद करके सोचेंगे तो पाएंगे की हम सच में किसी के नहीं हैं। हम जीना तो चाहते हैं पर जिंदगी असल में है क्या इसका हमें पता नहीं?

हम जानना भी नहीं चाहते। बस दौडऩा चाहते हैं। बदलना चाहते हैं। कभी खुद को। कभी खुद की प्राथमिकताओं को। यही अंजाना पर हमें खुद से दूर करता है इतना कि हम इंसान हीं नहीं रहते सिर्फ मशीन होते हैं। जिसे सिर्फ काम से मतलब है। हम उसी दिन से मरने लगते हैं जब जिंदगी और रिस्तों को व्यवसाय बना देते हैं। सबकुछ स्वार्थ पर टिका होता है। जो मेरे जितना काम का वो उतना करीब। सोचिए! हम अपने मां-बाप को भी पराया करने में एक क्षण नहीं सोचते। ये अनाथालय और आøम संवेदनाओं की हत्या से ही पैदा होते हैं।


सुबह से अखबार खोलते हैं तो लगता है कहीं मौत की अपराधों की होली जल रही है। कहीं छोटी-छोटी बच्चियों के साथ दुष्कर्म किया जा रहा है तो कहीं धर्म, मजहब के नाम पर निर्दोषों की बलि दी जा रही है। हत्या करना तो जैसे आम बात हो गई है। सारे टीवी चैनलों पर रिस्तों को तारतार करते दिखाया जा रहा है। अंधविश्वास, अपराध,अश£ीलता सिर्फ यही हम दिन रात देखते हैं। फिर वही करते हैं। हमारे बच्चे हमें देख रहे हैं। लेकिन ये हम कहां देख पा रहे हैं।


अब न तो पड़ोसी के घर सिसकियां सुनकर उसे गले लगाने का हमारे मन करता है। न ही किसी बेसहारा की मदद के लिए हाथ। ये तो छोडि़ए किसी मरते हुए को अस्पताल पहुंचाने की भी जहमत करने की हिम्मत हम में नहीं है। तो सोचिए हम जिंदा है कहां। हम हर दिन थोड़ा-थोड़ा मरते जा रहे हैं। खुद से दूर होते जा रहे हैं। इसलिए न अपने अपने रहते हैं न हम अपनों के। ये स्वार्थता हमें शून्य कर रही है। हम खाली हो रहे हैं और वो दिन दूर नहीं जब हम संवेदना और संचेतनाओं से भरे जिंदा आदमियों के बारे में किताबों में पढ़ेंगे। क्योंकि ये संवेदनाओं की हत्याओं का दौर है और एक दिन हम सब मर जाएंगे और हमें दिखेंगी सिर्फ मशीननुमा इंसानी लाशें।



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