“जो नहीं मिलता है, वही तुम्हें दौड़ाता है”
हम सभी दौड़ रहे हैं, ख्वाब बुन रहे हैं, ख्वाहिशों के घोड़े दौड़ा रहे हैं, इच्छाएं, महत्वाकाक्षाएं, सपने दिखा रही हैं, स्मृतियों में भले ही भूत सुंदर न हो पर भविष्य की सफलता रोमांच पैदा कर रही है। विचारों की इसी उधेड़बुन को उम्मीद कहते हैं, हम में से अधिकतर लोग सुबह उठकर सफल होने का संकल्प लेते हैं। कार्य योजना तैयार करते हैं, मन को दृढ़ करते हैं, खुद को समझाते हैं, भूत को भुलाने की सलाह देते हैं, भविष्य को बेहतर करने का खुद से वादा करते हैं। इसलिए सुबह हमेशा खूबसूरत होती है..लेकिन जैसे-जैसे सूरज सिर पर चढ़ता है..वैसे-वैसे हमारे सपने स्मृति से विलुप्त होने लगते हैं..आखिरकार रात अपराध बोध में गुजरती है कि फिर एक दिन गुजर गया..कुछ नहीं बदला..दरअसल हम पूरे जीवन में सिर्फ तैयारियां करते हैं..तैयार नहीं हो पाते। सवाल ये है कि तो क्या सपने देखना बंद कर दें, जड़ हो जाएं, उम्मीदों का गला घोंट दें, महत्वाकांक्षाओं को मृत मान लें। यदि ऐसा है तो फिर जीवन क्या है..रक्त का संचार उम्मीद ही तो है, सपने ही तो हैं वे मर जाएं तो फिर जिंदगी क्या है...देखिए..जितना हो सके उतना देखिए..हर दिन..हर क...