सुख दुख के खेल मे उल्झा जीवन
बहुत सुंदर गीत है ,और उसकी ही एक बहुत ही सुंदर पंक्ति है "सुख आते है दुःख आते है हम सुख दुःख के झमेले में मस्त रहते है मदमस्त रहते है .....और सायद यही दो लाइन समझ आ जाये तो सारा जीवन सुखमय हो जाये क्यों पूरी की पूरी दुनिया इसी सुख दुःख की उधेड़बुन में लगी है किसी को भी समझ नहीं आता की वो क्यों दोड़ रहा है उसे चाहिए क्या है ,और इस तरह निरुद्देश्य दोड़ लगाने से उसे निराशा के आलावा कुछ मिलने वाला नहीं है...आज लगभग हर इन्सान उस सुख की खोज में दर बदर भटक रहा है जिसकी उपलब्धि संसार में है ही नहीं वो जो सुख चाहता है वो तो उस निराकुल परमात्मा में है ..पर जब उसे यह पता चलता है की वह सुख परमात्मा के पास है तो वह मंदिरों मस्जिदों और ग़ुरुद्वारो के चक्कर लगाने लग जाता है पर उसे भी इसे दिलासा नहीं पर उसे तो फिर निराश होकर उसदी दौड़ में फिर लग जाता पर इतनी मस्क्कत करने के बाबजूद उसे सुख का एक कतरा तक नसीब नहीं होता ..पर तथा कथित धर्म के नाम पर लोगो को ठगने वाले उन बाबाओ के चक्कर में pad जाता है जो खुद भोगी विलाशी होकर भोगो के भिखारी है और usme ही रतोदीन तल्लीन है तो वह दुसरो को वह निराकुल सुख कैसे प्रदान करा सकते है..ऐसा करते करते भी उसे सुख की एक बूंद भी नहीं मिलती मिले भी कैसे जब वहा वह सुख था ही नहीं तो मिल्ता कैसे कभी सुख को खोजा कभी सुख पाने के लिए parmatma को खोजा par न तो परमात्मा ही मिला न ही वह सुख क्यों उसका यह dudna खोजना तो वेसे ही था जैसे mramarichika, वांझ का पुत्र आकाश कुसुम, और जो चीज़ जहा है ही नहीं वह वहा कैसे मिलती...par जब वह दुनिया की tarf से आंखे बंद करके saree दुनिया ki और se नजरो को फेर कर अपने अंतर्तत्व उस निर्मल निराकुल और bramh स्वरुप तत्व को देखता है तो सोचता है की अहो कह कहा कहा dunda इस चीज़ को कहा कहा खोजा par वह अद्भुत सुख तो मुझमे ही विदमान था ...उस को पाकर सारा संसार ऐसा प्रतीत होने लगा की सब मिटटी है और उसका ही खेल तमाशा है और वो पंक्ति यद् आने लगी की "मिटटी का मन मिटटी का तन क्षण भर जीवन मेरा परिचय...और अंततः यह बात समझ अ गई की" dundta फिरता हु ये यार अपने आपको आप ही खोया हु आप ही मंजिल हु मै"
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