पद्मावती: क्या एक फिल्म इतिहास बदल सकती है?
भारत एक ऐसा देश है
जहां मातृ भूमि के सम्मान के लिए सिर कटा दिया जाता था। हम सबको बचपन से ही वोरों
की शौर्य गाथाएं पढ़ाई और सुनाई जाती हैं। इसलिए हमें भारत भूमि पर जन्म लेने पर
गर्व होता है। लेकिन क्या हम में से किसी ने भी उन वीरों की तरह बनने की बात सोची
होगी या फिर हमें हमारे माता-पिता या शिक्षकों ने उनने जैसा बनने की प्रेरणा दी
हो। हम सब गर्व तो करता है लेकिन अनुकरण
करना नहीं चाहते। ये तो छोड़िए हम से कम ही लोग हैं जो इतिहास के वीरों या
वीरांगनाओं को जानते भी हों क्योंकि जो हमारे सिलेबस में नहीं होता उसे हम जानना जरूरी
नहीं समझते। हां लेकिन हमें उन पर गर्व
जरूर है होना भी चाहिए लेकिन उनके व्यकित्व और कतृत्व को समझने के बाद पर इतनी
जहमत उठाए कौन?
बहरहाल खुद और खुद
जैसे लोगों की आलोचना करने के लिए लेख नहीं है ये सिर्फ इसलिए कि हम क्यों एक
फिल्म से इतना डर रहे हैं। एक फिल्म में इतनी हिम्मत है कि वो हमारे इतिहास को
मिटा या बदल दे। या हम खुद उसे देखकर इतिहास को भूल सकते है या हमारी पीढ़ी उसे
गलत समझ सकती है। यदि ऐसा कुछ है तो ये बहुत ही शर्मिंदगी जैसी बात है। हमें फिल्म
से डर नहीं है खुद से डर है क्योंकि हमें खुद पर और खुद के इतिहास पर भरोसा नहीं
है। हम न तो इतिहास जानते हैं न जानना चाहते हैं। भंसाली का मैं सपोर्ट नहीं कर
रहा हूं। हमारी अस्मिता को गलत दिखाना या मिटाना हमें भी बर्दास्त नहीं है लेकिन
यदि वो हमारा इतिहास उठाकर उसे जीवंत कर रहे हैं
तो उसका विरोध जरूरी है या सपोर्ट। हम क्यों सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर
रहे हैं।
दुखद है यह विरोध,
कलात्मकता पर पाबंदी भी शर्मनाक है। खून में उबाल मारना चाहिए लेकिन इतिहास बनाना
के लिए न कि उसके विरोध में। इतनी ही नहीं अब तो विरोध की सीमा इतनी घिनौनी हो गई
है क नारी के सम्मान में किए जा रहे विरोध में ही नारी का अपमान किया जा रहा है।
कहां जा रही कि फिल्म में पद्मावती बनी दीपिका की नाक काट ली जाएगी। वाह गजब है
महाराणा के वंशजो महिला के आत्मसम्मान के लिए जाने देने वाले उसे अपमानित करने का
संकल्प कर रहे हैं।
संजय लीला भंसाली ने
खुद ही इस बात को स्वीकार किया है कि फिल्म में रानी पद्मावती और अलाउद्दीन खुलजी
के बीच कुछ भी आपत्तिजनक सीन नहीं हैं। फिल्म को सेंसर बोर्ड ने पास नहीं किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म पर बैन लगाने की याचिका खारिज कर दी है। तो सवाल यह है कि
जब फिल्म प्रदर्शित ही नहीं हुई है तो फिर ये किस कैसे कहा जा रहा है कि इतिहास से
छेड़छाड़ की जा रही है। उसके पहले ही विरोध पूरी तरह से गलत है। इस विरोध का
बुद्धिजीवी वर्ग को विरोध करना चाहिए।
एक और बात यदि फिल्म
से इतनी दिक्कत हैं तो आप लोगों से फिल्म देखने के लिए मना कीजिए। अपील कीजिए कि
कोई भी फिल्म सिनेमाघरों में न देखे। अभी यू ट्यूब पर ट्रेलर को करीब साढ़े चार
करोड़ लोग देख चुके हैं। उन्हें मना कीजिए। पोस्टर फाड़ने से लोग और ज्यादा
देखेंगे। याद रखिए विरोध प्रचार की कुंजी है। इससे उत्सुकता बढ़ेगी। भंसाली को ही
इससे फायदा होगा। जैसे पीके के लिए राजकुमार हिरानी को हुआ था। विरोध अंतर में
होना चाहिए। बदलाव खुद में होना चाहिए। साथ ही विरोध करने वाले ये संकल्प लें कि
यदि फिल्म रिलीज भी होती है तो वे इसे न खुद देखेंगे न ही अपने परिवार के किसी
सदस्य को न टॉकीज में न ही टीवी पर देखने देंगे। यदि इतना कर लिया तो आपकी जीत है
और भंसाली की हार। ऐसे तोड़फोड़ करने और टीवी पर कुछ का कुछ बोलने से कुछ भी बदलने
वाला नहीं है। आंखें बंद कर आग्रह-पूर्वाग्रह छोड़कर खुद से सवाल पूछिए शायद सच
सुनाई दे।
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