घर से विदा सिर्फ लड़कियां ही नहीं होती लड़के भी होते हैं?


दसवीं का रिजल्ट आया ही था, मार्कशीट के साथ ऐसा लगा जैसे घर छोड़ने का फरमान आया हो। आगे की पढ़ाई के लिए घर छोड़ना था। मेरे जैसे कई युवा ऐसे ही पहली बार घर छोड़ते हैं पढ़ने के लिए, अपने और अपनों के सपने पूरे करने के लिए, उम्मीदों को पंख देने के लिए, बड़ा बनने के लिए। सब कुछ मिलता है जो सोचा गया था सिवाय घर के। घर से निकलते समय शायद ये अहसास ही नहीं हुआ कि ये विदाई ही है अब घर ब्याही गई बहनों की तरह ही कभी-कभी ही आना हो होगा। घर से निकलने के कई सालों तक हमारे जहन में ये बात नहीं आती लेकिन कभी आंख बंद करके सोचो तो समझ आता है कि पढ़ाई और फिर पढ़ाई के फल ने हमें अपने घर से हमेशा के लिए दूर कर दिया।
अपने मां-बाप से दूर। अब हम सिर्फ फोन पर या त्यौहार पर ही साथ होते हैं। याद नहीं आता कभी एक पूरा हफ्ता इन 10-15 सालों में साथ गुजारा हो। हम मस्त हैं अपने काम में और मां-बाप खुश है संतोष में कि उनके बेटे ने तरक्की कर ली। जैस-जैसे समय गुजरता जाता है हम दूर होते जाते हैं उनसे वो जब भी फोन करो कुशलक्षेम के साथ एक बार जरूर पूछते हैं कि घर कब आ रहे हो और हमारा हमेशा जवाब होता है जब छुट्टी मिलेगी तब। खैर ये कोई सजा और पश्चाताप नहीं है सिर्फ दर्द है।
क्योंकि हमारा बचपन जहां गुजरता है वो जगह स्वर्ग होती है, वहां के रास्तों से गुजरने पर हमें एक-एक घटना आईने में दिखती है, धड़कने तेज धड़कने लगती हैं। गांव का पुराना घर, गांव की टूटी फूटी सड़कें, बिजली-पानी के लिए जद्दोजहद, संसाधनों का अभाव, बहुत कुछ नहीं था वहां लेकिन जो सुकून वहां था। मां-बाप के साये में था वो अब सब होकर भी नहीं है। संसाधन सारे हैं पर संतोष नहीं है, सुख नहीं, आनंद नहीं है। वो खेत, कुए, पेड़, तालाब गांव में आज भी जस का तस है जिन्हें हम छोड़कर आए थे लेकिन वो भी सब खाली खाली सा हो गया है अब कभी वहां जाते हैं तो सब अधूरा-अधूरा सा लगता है। जैसे उन निर्जीव वस्तुओं को भी मेरी कमी खलती है। उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि उन्हें भी मेरी तरह विरह की वेदना है।
फिर घर आकर जब अपनी मां का चेहरा देखते हैं, उसकी आंखे बस यही कहती है कि मैं उन आँखों से कभी दूर न जाऊं। उसका दिल चाहता है कि लाल हमेशा सामने रहे, वो प्यार बरसाना चाहती है लेकिन हम भीगने को ही तैयार नहीं है। वो कहना तो चाहती है पर कह नहीं पाती। वो हर तरह का पकवान बनाती है, मुझे रिझाती है कि तुम्हारे शहर में चमक होगी पर चाहत और लाड़ सिर्फ यही मिलेगी। घर आजा बेटा। तभी कोई पड़ोसी आकर मेरे हुनर और तरक्की की बातें करने लगता है और वो फिर विरह की पीड़ा दबा कर बेटे की सफलता में खुश होने लगती है और ढेर सारी मिठाईयों के साथ विदा करती है, हर बार की तरह रोते हुए, इसी उम्मीद में कि ये होली-दीपावली हर महीने क्यों नहीं आते। कम से कम लाड़ले को देख तो पाती।
घर के बाहर मेरी परछाई की तरह हमेशा मेरी तकलीफों में साथ खड़ा होने वाला शख्स खड़ा रहता है और कहता है बेटा जल्दी करो तुम्हारी बस आने वाली है। अल्फाज और जज्बातों का तालमेल यही गड़बड़ा जाता है वो चाहते हैं कि शायद ये आने-जाने वाली बसें न होती तो बेटा साथ होता। उसके साथ बातें करते, उसके कंधे पर हाथ रखकर शाम को घूमने जाता और अपने जीवन के अनुभव का पाठ उसे पढ़ाता। बीमार होता तो वो मेरे पास बैठता, दवाई ले आता, पैर दबाता। रोज उसे देख पाता और जिंदगी बसर हो जाती। लेकिन ये सब दिवास्वपन ही थे। वो रोक भी नहीं सकते थे क्योंकि पढ़ने भेजा भी तो उन्हीं ने था। अब शायद भगवान से बोल रहे होंगे कि वो हर सपना सच क्यों कर देता है। उनके कुछ सोचते हुए मैं कहता हूं  चलना नहीं है क्या पापा, जल्दी करो मेरी बस निकल जाएगी। वो साइकिल पर मेरा सामान लेकर चल देते हैं।
जाते हुए पूरा मोहल्ला बाहर खड़ा होकर पूछता है क्यों जा रहे हो क्या, कब आओगे, जल्दी जा रहे हो, आते रहना, ख्याल रखना। ऐसा लगता है मेरी दुनिया में और इस दुनिया में कितना अंतर है वहां बीमार पड़ा रहता हूं तो कोई पूछने नहीं आता। मेरे पड़ोस में रहने वाला मुझे अच्छे से जानता तक नहीं है और यहां किसी के घर कुछ स्पेशल बनता है तो सीधे घर लेकर खिलाने ले आता है। समझ नहीं आता कि इस पढ़ाई ने कुछ दिया है या फिर छीन लिया है। जैसे-जैसे कदम बढ़ाता हूं बचपन की वे गलियां, पेड़, पौधे, पुराने मित्र, रूंआसे से नजर आते हैं। हवा मानो ठहर जाने को कह रही हो, बादल मानो आंसु बहाने को तैयार हों। जमीन ने जैसे जकड़ लिया हो....
इंतजार करते-करते और कुछ सोचते सोचते बस का हार्न बजता है, बस रूकती है फिर सामान बस में चढता है लगता है लड़कियों की तरह मेरी भी विदा हो रही है सब रो रहे हैं, जल्दी आने की बात कहकर..बस चलती है और फिर धीरे-धीर जैसे-जैसे रास्ते बदलते हैं मनोभाव भी बदलने लगता है, सब विस्मृत हो जाता है। भूल जाता हूं कुछ छूटा है फिर वही सब अपनी दुनिया...ये हर साल होता है हर बार होता है..शायद यही जिंदगी है यही नियति है...वो दसवी की मार्कशीट विरह का सर्टिफिकेट था, उसे देखता हूं तो लगता है जैसे किस्मत का पत्र हो...हम में से कितने घर से दूर हैं, लेकिन घर दिल में आज भी जस का तस है,,,हमेशा के लिए....

Comments

  1. वाह ..
    आपकी लेखनी ने तो भावुक कर दिया ... सच लिखा है आपने बेटे बेटियों ... विदा करते हैं माँ बाप उनके अच्छे के लिए ही पर करते हैं ...

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