सम्मेदशिखरजी" हमारी 'आस्था' नहीं 'आत्मा' है!
2002-03 में पहली बार सम्मेद शिखर जी गया था, उसके पहले कल्पना ही की थी कैसा होगा सम्मेदशिखर, मुझे अच्छे से याद है, जब कोई गांव से शिखर जी की यात्रा करने जाया करता था, पूरा गांव उसका सम्मान करता, माला पहनाता और श्रीफल देता, ऐसा अनुभव होता जैसा कोई किसी बड़ी विजय के लिए निकला हो। तमाम रिश्तेदार मिलने आते कोई अष्टद्रव्य तो कोई नारियल भेंट कर जाता कि निर्वाण भूमि में अर्पित कर देना। हर कोई अपने अपने तरीके से अनुमोदना करता, तब से ही लगता था कि कुछ तो है, उस भूमि में, जो हजार किमी दूर बैठे लोगों में भी पवित्रता, अस्था, श्रद्धा को जीवंत किये हुए हैं।
हम बचपन से ही कहीं जाने का सपना देखते हैं तो वो सम्मेदशिखर ही है, जाने से पहले इतनी कल्पनाएं थीं मन में की मैं कई रात सोया नहीं, यह सोचकर की कैसी अदभुत जगह होगी वो, जिसके लिए आज पूरा का पूरा गांव हमें बस स्टैंड तक रवाना करने आया है। पाठशालाओं में सुना ही था शाश्वत तीर्थ है सम्मेद शिखर, मतलब अनादि से अनंत तक, हमेशा से तीर्थंकर वहां से मोक्ष जाते हैं, इतने तीर्थंकर मोक्ष जा चुके हैं, कि वहां की कोई भूमि ऐसी नहीं बची जहां से कोई न कोई सिद्ध न हुआ हो। सोचो जहां के कण-कण से आपके आराध्य मोक्ष गये हो, उस तीर्थ की पवित्रता भला कैसी होगी, वह अहसास कैसा होगा। उसे शब्दों में बयां कर पाना असंभव है।
जब पारसनाथ स्टेशन से मधुवन के लिए निकला जैसे ही सम्मेदशिखर जी का गेट देखा, मन कौतूहल से भर गया था, भावों और भावनाओं से ओतप्रोत होता जा रहा था, समझ नहीं पा रहा था कि जिस भूमि के कण कण से सिद्ध हुए हों, वहां पैर कैसे रखुंगा, अपराधबोध सा महसूस हो रहा था। आप सोचिए, जहां एक जैन पैर रखने में अपराधबोध महसूस होता हो, वह पर्यटन, आपके तथाकथित डेवलपमेंट के नाम पर उस भूमि पर मांस-मदिरा और न जाने क्या-क्या व्यसनों के कैसे बर्दाश्त कर लेगा, शिखर जी हमारी आस्था नहीं, आत्मा है। हम कैसे सहन कर लें, आप जूते पहनकर उस पहाड़ पर चढ़ जायें, जहां पग पग पर हम ईश्वर देखते हैं, हम कैसे मोक्ष देने वाले तीर्थ को मोज देने वाला पर्यटन बना लें। यह डेवलपमेंट नहीं है, उन तमाम जैन साधकों की आस्था की हत्या होगी, जो हर साल स्वत्व को खोजने सम्मेद शिखर जाते हैं।
विगत दिनों घटे शिखरजी को लेकर घटनाक्रम पर चिंतन करने से थोड़ी बहुत गलती हमें अपनी भी नजर आती है, हमने ही एक क्षेत्र को बाजार बनाया है, पहाड़ को ट्रेकिंग प्वाइंट, रील्स के लिए स्पॉट, फोटो के लिए लोकेशन, खरीदी के लिए मार्केट, और बाकि खाना-खजाने के लिए रेस्टोरेंट। हमें सम्मेदशिखर जाकर भी फाइव स्टार व्यवस्थाएं चाहिए, अच्छे होटल्स चाहिए, खाने के लिए अच्छे रेस्टोरेंट चाहिए। जब आप डिमांड करेंगे तो इस बाजारवाद के युग में कोई न कोई तो आपको सामान देगा ही, किसी न किसी को तो प्रोफिट नजर आएगा ही, कोई न कोई तो रिसोर्ट की प्लानिंग करेगा ही, टाउनशिप डेवलप करेगा ही, और भी वो सब करेगा जो आपको आकर्षित करे। आपने नींबू पानी, पीना शुरू किया तो पहाड़ पर हजार दुकानें खुल गईं, अब पकौड़े, समोसे तक मिलने लगे हैं। थोड़ा संयम हमें भी रखने की जरूर है, वह जगह आत्माराधना के लिए, जब वहां हम उसी सोच के साथ जाएंगे तो फिर, त्याग की भावना के साथ जाएंगे तो बाजारवाद हावी नहीं होगा, हमारी सुविधाभोगी आदतों के कारण ही, आज सम्मेद शिखर जी को नजर लग गई है। याद रखिए, फैसला तो वापस होगा ही, लेकिन एक फैसला अपने मन में हमें भी करना है कि हम सब भी शिखरजी तीर्थ यात्रा के लिए जाएं, पर्यटन के लिए नहीं।
खैर, ये वक्त एकजुटता के संदेश का है, तीर्थ रक्षा के संकल्प का है, हम किसी भी हालत में शिखरजी की पवित्रता को खंडित होता नहीं देख सकते। यह आस्था पर नहीं, आत्मा पर चोट है, हमें नहीं चाहिए, आपकी सड़कें, आपकी व्यवस्थाएं, हम खुद कर लेंगे सब, अभी तक सब हमने मिलकर ही तो किया है। आप हमारी सुविधाओं की चिंता छोड़ दीजिए, हमारी श्रद्धा की चिंता कीजिए। हमें शिखर जी पूरी पवित्रता के साथ चाहिए, बिना किसी शर्त के। उसके लिए तन-मन-धन और जीवन सबकुछ निश्छावर है। #SaveShikharji
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