प्रेम- प्रेमालाप, प्रदर्शन, पश्चाताप या फिर पागलपन
ओशो का एक वाक्य है "वासना का नाम प्रेम नहीं पर इसका मतलब यह नही है की
वासना को दबाकर प्रेम को प्राप्त किया जा सकता है ,प्रेम तो उसका नाम है
जिसके होते ही वासना की भावना क्षीण होती जाती है और और उसका अस्तित्व
ख़त्म होता जाता है ,सच्चे प्रेम में तो वासना का कही स्थान ही नहीं है जैसे
ही प्रेम का सूर्य उदित होता है वासना का अँधेरा अपने आप कही छुप जाता है
,असल में यही वो निर्मलता है जिसमे मन का मिलन होता है या कहे इश्वर का
मिलन होता और यही प्रेम आदर्श है |
मेरे मन में हमेशा से एक सवाल उठता रहा है की आखिर प्रेम की जरूरत क्या है या प्रेम की परिभाषा क्या है ,परिवार वालो से तो कभी इस बारे में पूछ नहीं पाया और टीचर ने भी शायद जिन्दगी के सबसे महत्वपूर्ण सब्जेक्ट को बताना सही नहीं समझा ....असल में हमारी शिक्षा ने ही हमें खुदगर्ज़ बना दिया है जिसके कारण प्रेम से पवित्र शब्द को इस रूप में लिखना पड़ रहा है {"प्रेम प्रेमालाप प्रदर्शन पश्चाताप या फिर पागलपन }हा कुछ तथाकथित मित्रों और फिल्मों ने प्रेम का प्रदर्शन इस तरह किया की कभी समझ ही नहीं आया की प्यार फिल्मो जैसा है या फिल्मे प्यार जैसी फिर क्या बस प्रेम कही धूल खाता रहा और हम उसके प्रदर्शन में ही खुश होते रहे यही कारण रहा की वो कभी दिल तक पंहुचा ही नहीं हा और कमोवेश कभी प्रेम जैसा दिखा भी तो वो भी सिर्फ और सिर्फ अपने अहम की पुष्टि के लिए जिससे कोई उसे झुठला न सके और उसका प्रदर्शन अनवरत चलता रहे और वो भी चलता रहता है वर्षो तक |
अभी कुछ दिनों पूर्व ही मेने अपने मित्र से उसकी गर्लफ्रेंड के बारे में पूछा जिसके साथ वो लगभग ७ सालो से साथ था तो उसने मुझे जो बताया सच में वो सब विस्मय से भरा हुआ था |उसने कहा की उसके साथ तो उसका ब्रेकअप हो गया है मेने पूछा भाई ऐसा कैसे हो सकता है तो उसने बताया की हम दोनों में प्रेम तो कभी था ही नहीं बस साथ रहते रहते हम एकदूजे की जरूरत बन गये थे तो ऐसा लगा था की हमें आपस में प्यार है पर ऐसा नहीं है यार ......मुझे तो समझ ही नहीं आया की क्या कहूँ क्योंकि प्रेम के लिए उसके की उदाहरन दिया करता था की प्रेम करना है तो उनके जैसा करो पर वो भी बस फ़िल्मी निकला |और तब से ही लगने लगा बस प्रेम का आलाप ही होता है उसे कहा दिखाया ही जाता है वह होता कही नहीं है और कभी होगा भी नहीं क्योंकि हम सब प्यार पाना चाहते है करना नहीं और प्यार चाहने से नहीं करने से ही मिलता है |
जब कभी मेने लोगो से यह कहा की प्यार व्यार का दुनिया में कोई अस्तित्व नहीं है तो लोगो ने कहा तो फिर लोग अपनी जाने ऐसे ही दे देते है |तब उनसे कहा की वो प्यार ही नहीं जिसमे जान ली जाये या दी जाये प्यार तो अमरता का नाम है तो लोग कहते है मरने के बाद ही तो प्यार अमर होता है |सच बताऊ तो उसे प्यार नहीं पागलपन कहते है क्योंकि जो अपने स्वाभाव को भूल जाये वह पागल और प्यार में सबसे पहले खुद को ही भुला जाता है और रही अमर होने वाली बात तो यह सब फिल्मो की बाते है जो सिर्फ फिल्मो में ही अच्छी लगती है वास्तविकता से उसका कोई लेना देना नहीं है ,आप के मन में यह सवाल कचोट रहा होगा की यदि ऐसी बात है तो अधिकतर युवा प्यार के चक्कर में क्यों पड़े है तो मेने पहले ही बताया था की इस देश में फिल्मे नहीं चलती फिल्मो से यह देश चलता है और फिल्मे प्यार के नाटक चलती है और हमारी जिन्दगी उस नाटक को असली समझने से चल रही है जिसके कारण ऐसा लगने लगा है की प्यार नहीं होगा तो जिन्दगी नहीं चलेगी बस यही वो भ्रम है जो जिसने प्यार को जरुरी बना दिया है और जिन्दगी को उसके बिना मज़बूरी |
सच तो यही है की आज प्यार बस आदर्श है और नव यथार्त है वासना ...प्यार का जन्म अंदर में पड़ी वासना से ही होता है बस इसलिए वह कही भी किसी से भी हो जाता है कई बार होता है जरा सी किसी की सहानुभूति प्रसंसा आपको पुनः प्रेम करा देता है जो बदलता रहे वह प्रेम नहीं आदत है और ऐसा प्रेम जो आजकल फेशन में है वह आदत ही है ।हा सच में कभी प्रेम आदत बना कभी जरूरत मोहब्बत तो कभी नहीं बना है न ही कभी बनेगा।
खैर इस लेख को लिखने का अभिप्राय बस इतना ही है की प्रेम के सम्बन्ध में होने वाले भ्रम से निजात पाई जा सके विगत दिनों प्रेम के सम्बन्ध में अपने कुछ मित्रो से काफी बात हुई उसके बात काफी कुछ विचार चिंतन इस पर किया गया लेकिन आज भी वह उतना ही अबूझ है जितना पहले था और मुझे लगता है प्रेम के सम्बन्ध में कुछ निष्कर्ष निकलेगा भी नहीं उसे जितना जानने की कोशिश की उतना ही खुद में उलझता गया ..सच में इतना सबकुछ लिखने के बाद भी समझ नहीं आ रहा है की प्रेम क्या है ???प्रेम प्रेमालाप प्रदर्शन पश्चाताप या फिर पागलपन .........
यद्यपि लेखन का प्रयास सार्थक है..कई मुद्दों पर विशदता से प्रकाश डाला जाना आवश्यक है जोकि अपने जबाब पूरी तरह देने में चूके हुए प्रतीत होते हैं..इसके साथ ही साहित्यिक पैमानों पर देखें तो कुछ जगह वाक्यविन्यासों की बुनावट क्लिष्ट और कष्टकर जान पड़ती है एक उचित प्रवाह टूटता हुआ प्रतीत होता है खास तौर पर विराम चिन्हों के प्रयोग के संबंध में सावधानी रखने की आवश्यकता है..जोकि कई जगह योग्यरूप से वाक्योपरांत स्थापित नहीं किए गए हैं..बाकि प्रयास सराहनीय है किसी छोटे वाक्य लेखन में शब्दों का प्रयोग बड़ा आसान होता है पर एक संपूर्ण लेख में शब्दों एवं वाक्यों की तारतम्यता बनाए रखना कठिन कार्य है...पर लगातार लिखते-लिखते इन कमियों में सुधार आ जाएगा...विषय का टाइटल अच्छा था।
ReplyDeleteबधाई!!!!
अंकुर सर सबसे पहले तो शुक्रिया जो आपने मेरे लेख पर अपनी प्रतिक्रिया दी .....अब सब आप से ही तो सीखने की कोशिश कर रहा हूँ और जो लेख में गलतियाँ हुई है और आपने जो उन पर मेरा ध्यान इंगित कराया है ......उन्हें में ध्यान रखूँगा और प्रयास करूंगा की अगले लेख में उन्हें पुन: न करूं !!!!!
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