अहम की लड़ाई लड़ते आडवाणी..क्या अपना अस्तित्व खो रहे हैं ????????
एक
बहुत पुरानी कहावत है कि हवा जिस ओर हो अपना रूख भी उसी ओर कर लेना चाहिए..वरना
हमारा बजूद खो जाता है...मुझे नहीं पता कि लालकृष्ण आडवाणी ने ये कहावत सुनी है या
नहीं पर इतना जरूर है कि यदि उनने इस पर अमल नहीं किया तो शायद वो अपने अस्तित्व
को अपनी ही पार्टी में जरूर को देंगे..औऱ फिलहाल उस दौर से जूझते हुए भी आडवाणी
दिखाई दे रहे है..और लोग तो उनके युग की समाप्ति औऱ सन्यास तक की बाते करने लगे
है..और बहुत से लोग तो आडवाणी को बीजेपी का वीभिषण तक कहने लगे है..खैर आडवाणी को
ये बातसमझना चाहिए कि..जब पेड़ में नये पत्ते आ जाते हैं तब पुरानी पत्तों को
झड़ना ही बड़ता है..औऱ ये तो प्रकृति का निय म से इससे मुकरना कैसा..ये वक्त तो
खुद कुर्सी छोडकर किसी सशक्त हाथों में सौंपने का है।
पर
आडवाणी की महत्वाकांक्षाओं का मगरमच्छ शायद उन्हें ये करने नहीं दे रहा है.उनका मन
बार-बार प्रधानमंत्री बनने के लिए आकंठित हो रहा है..किसी भी तरह प्रधानमंत्री की
कुर्सी पर काबिज होना है..लेकिन क्या इतना आसान है जितना आडवाणी समझ रहे
हैं..दरअसल आडवाणी जो कुछ समझ रहे है वैसा कुछ है ही नहीं..उन्हें लगता है कि मेरे
शिष्य का मुझसे बड़ा कैसे हो भला..पर शिष्य के कग बढ़ने से गुरू का तो सर्वस्व बढड
जाता है..उसे औऱ चाहिए क्या है.बस इतना ही की मेरा शिष्य मुझसे भी बढ़ा
प्रतिभाशाली बने औऱ नरेन्द्र मोदी ने वही तो किया..गुजरात में विकास कि बहार
दिखाकर बता दिया..दि वो गुजरात की तरह पूरे देश की तस्वीर बदल सकते है..उनके
व्यक्तित्व में वो सकारात्मकता दिखती है..उनकी वाणी औऱ विचारों मे विश्वास दिखता
है,,कि वो भारत के भाग्यविधाता बन सकते हैं..औऱ जनता जनार्दन भी तो चाहती है कि
कोई ऐसा व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बने जो देश को बदहाली.भ्रष्टाचार,मंहगाई से
निजात दिला सके औऱ कम से कम वो कुछ बोले तो सही..क्योंकि 10 सालों से खमोश
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के रवैए से जनता में काफी आक्रोश है..
नरेन्द्र
मोदी ही शायद बीजेपी के तारनहार हो सकते हैं..ये बात बीजेपी के आलानेता औऱ संघ
बखूबी जानते है..इसलिए आडवाणी के रूठने पर बीजेपी के नेता उनके सम्मान के लिए मना
तो रहे हैं..लेकिन उनके ना मानने पर वो उन्हें दरकिनार भी कर सकते हैं..क्योंकि अब
वक्त रूकने का नहीं है..सिर्फ करने का है..निर्णय लेने का है..अब किसी को
जबरदरस्ती ढोया नहीं जा सकता..सिर्फ औऱ सिर्फ सत्ता पर काबिज होना मायने ऱखता
है..उसके लिए भले ही किसी विरोधी को पार्टी में मिलाना पड़े या किसी पार्टी के
कद्दावर नेता को हटाना पड़े ..राजनीति में तो .ही चलता है..क्योंकि राजनीति सिर्फ
सत्ता कि सगी होती है..यहां इज्जत पावर,रूतबा सिर्फ उसका है जिसकी हवा है..वरना वो
कहा किस बिल में हैं . नहीं है किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता..शतरंज का ये खेल
जितना सुहावना लगता है उससे भी ज्यादा भीभत्स है..क्योंकि यहां कब अपनों या अपनी
बलि चढ़ जाए पता नहीं..
खैर
लालकृष्ण आडवाणी को अभी नरेन्द्र मोदी की बात पर सहमति बना लेनी चाहिए और कंधे से
कंधे मिलाकर चुनाव में जुच जाना चाहिए..क्योंकि पार्टी की जीत आपकी ही जीत है..औऱ
आप तो पार्टी के पितामह है..तो सब आपके ही हाथ रहेगा..इस तरह बच्चों की तरह रूठकर
आफ अपना ही कद कम कर रहे है..औऱ आपके कार्यकर्ता भले ही कह ना पा रहे हों पर लेकिन
बात तो वो यहीं मानते है..औऱ शायद आपके और आपका पार्टी के लिए यही सही साबित
होगा...
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