स्मारक इंडियंस पार्ट-16 (शाम का वक्त,मोती पार्क और हम)
(इसे पढ़ने से पहले बाकी के पार्टों
को जरूर पढ़े)
विवेक का एक बात हमेशा किया करता था
खासकर राहुल, सजल,दीपेश, सौरभ, अभिषेक जोगी मैं
कपिल औऱ भी जो हमारे साथ शाम को घूमने जाया करते थे उनको लेकर..”कि मुल्ला की दौड़
मस्जिद तक होती है”..हाहाहाहा.. यहां हसना जरूरी इसलिए है क्योंकि वो ये बात हमेशा
इसलिए बोला करता था की हम कभी शाम को स्मारक से 20 से 30 कदम की दूरी से ज्यादा
घूमने नहीं जाया करते थे,,,एक तऱफ निशंक,
करन,अतुल, जयदीप लोग थे
जिनके लिए शाम का मतलब मार्केट या बढ़ी बिंदास सी जगह जाना होता था,,,पर हम आलसियों के लिए तो मोती पार्क जाना ही बड़ा भारी काम लगता था,,उसमें भी हमारे राहुल नेता तो मोती पार्क जाते जाते सुस्ता लेते थे..भैया
हम तो ठक गय यार...बड़ी हैरान परेशान करने वाली बात होती थी,,स्मारक में सबसे ज्यादा खाने वाला आदमी इतना कमजोर कैसे हो सकता था...जो
10-20 कदम चलने में थक जाए इसका दुष्परिणाम ये निकला की उसके साथ हम भी कभी कहीं
औऱ नहीं जा पाये....
दरअसल अब हम यादों में घूम रहे हैं
क्योंकि गुजरने वाला वक्त तो शायद अब नहीं आएगा लेकिन स्मृतियों में सिमटे वो पल
कहीं ना कही उस वक्त को सामने लाने पर मजबूर जरूर कर देते हैं..असल में ऐसे कभी ना
भूल पाने वाले वक्त को हम सब सहेज कर रखना चाहते हैं..और चाहते हैं कि ये वक्त कभी
ना गुजरे ..जहां है वहीं ठहर जाए ,,,और वक्त ठहरता भी है क्योंकि वो लम्हा आपके साथ आपकी यादों में हमेशा कैद
हो जाता है..जो कभी आंखू में आंसू तो खुशी बनकर आपके सामने आता है....
खैर वापिस मुद्दे पर आता हूँ..चूंकि
सफर इतना सुहाना है कि आगे जल्दी पहुंचने की कोई जल्दबाजी नहीं है इसलिए यादों के
सफर को शब्दों से जरा लंबाना चाहता हूं..क्योंकि जितना वक्त इन्हें पढ़ने में
लगेगा..उतना उस वक्त को हम संजीदा तरीके से जी पाएंगे..खैर मोती पार्क पहुंचते ही
गोला बनाकर सब बेठ जाया करते थे..और शुरू होता था हमारा निंदा पुराण जिसमें स्मारक
के लगभग सभी लोग शामिल होते थे..हम ऐसे स्मारक के मुद्दों पर बात करते थे..जैसे
स्मारक की समस्याओं के हल के लिए हमारी कोई कोर कमेटी गठित की गई हो और हम सब उसके
सदस्य हों..और आखिरी निर्णय हमें ही करना हो...
मुद्दे भी सुनिए जरा क्या होते
थे..राहुल..यार भारी मच्छर काटत आर,,लेट्रिंगों में पंखा लग जाने चाहिए...पानी भरने नीचे जाना पड़ता है
यार...वॉटर कूलर लग जाए बींग में तो मजा आ जाए..चिंतामन बड़े चाव से ये मुद्दा
उठाया करता था...यार वो फायनल ईयर वाले जिम वाले रूम की चाबी अपने पास रख लेते
हैं..वो सामान अपनी बींग में आय जाये तो कितना अच्छा
हो..अजय गोरे का मुद्दा हुआ करता था ये...यार खाना तो पता नहीं कुछ का कुछ बना
देते हैं ये लोग..हमें शिकायत करनी चाहिए वाडकर और भालू को बड़ी परेशानी होती थी
खाने को लेकर...यार गुरूदेव श्री के प्रवचन सुनने कोई नहीं जाता..बता नहीं भाई
साहब लोग कुछ क्यों नहीं बोलते..दीपेश को हमेशा इसी बात की चिंता लगी रहती थी..और
ऐसे तमाम मुद्दे थे जिन्हें देर सबेर हम चर्चा में लाया करते थे..पर अंत तक हल कुछ
नहीं निकला...हल निकलता भी कैसे हम हल चाहते ही कहां थे,,हम
तो मोती पार्क का टाइम निकालना चाहते थे और वो बखूबी निकलता जा रहा था..
मुझे याद है बुधवार को बिड़ला मंदिर
में लगने वाले मेले में जाने के लिए भी सब लोगों से भारी मिन्नतें करनी पड़ती थीं
क्योंकि वो सबको बहुत दूर लगता था..लेकिन सब बड़ी हिम्मत करके पहुंच ही जाया करते थे..एक वाकया यहां बिड़ला मंदिर के
संबंध में दिलचस्प है उसे जरूर बताना चाहूंगा,,..दरअसल हुआ
यह की हमारे एक जूनियर की चप्पल बिड़ला मंदिर में खो गई, बड़ा
परेशान था वो..हम से पूंछा उसने के भाई साहब चप्पल खो गई हैं क्या करें..अब उत्तर
हम लोगों को देना था तो..राहुल बाबू बोले किसी और की तू पहन ले यार और क्या..उसने
हमारी बात मानकर ऐसा ही किया और बाद में जनाब जब स्मारक पहुंचे तो वो जनाब जो
चप्पल पहनकर आये थे वो हमारे एक सीनियर की ही
निकली..जिसे देखकर उन्होंने पूंछा..क्यों किसकी चप्पल हैं ये..मेरी हैं क्यों..यार
मेरी भी ऐसी हीं थी..थोड़ी देर बाद यार जे तो हमाई ही चप्पल आयें जे देखो नीचे से
टूटी भी हैं..अरे भाई साहब वो...बिड़ला...तो साले तुम्हें जेई चप्पल मिली थी...खैर
उस दिन उसके साथ हुआ उसने कभी हम में से किसी से फिर कभी सलाह मांगने की हिम्मत
नहीं की..करता भी कैसे..(दोनों के नाम जानने की कोशिश ना करें सबकों पता है पर
सार्वजनिक ना करें)
और भी बहुत बातें हैं करने को यदि
पांच सालों में से हर दिन पर एक लेख लिखा जाए तो शब्दों का पैमाना खत्म हो जाएगा
लेकिन यादें खत्म नहीं होगीं...सच में लिखते लिखते वो तस्वीर याद आ जाती है साथ
खाना, सोना,,लड़ना, झगड़ना,,,सबकुछ रूपहले
पर्दे पर मानो फिर से जीवित हो जाता हो..और साला तुम लोगों की यादें फिर हुडहुड
तूफान की तरफ दिल में बैचेनियां बड़ा देती है...और तुम लोगों की यादों से बहुत
नुकसान होता है आंसुओं का और साला तुम फिर से साथ मिलकर उसका मुआवजा भी नहीं
देते......
फिलहाल अब विराम लेता हूं फिर सफर में
मिलते हैं और यादों के साथ..तब तक....अगली कड़ी का इतजार..........
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