स्मारक इंडियंस पार्ट-17 (दीपावली पर घर जाने की हलचल)




दोस्तों यादों के सफर में आगे बढ़ने में मिल रही प्रतिक्रियाओं से आप सबके साथ होने का अहसास जिंदा हो रहा है और बार-बार कलम वापिस उसी दौर में लौट जाने को कह रही है..जिसे हम सब संजोकर जीवन में उस तस्वीर की तरह दिल में उतारना चाहते हैं जिस हर अल सुबह हम देख सकें..क्योंकि यादों के वो अंकुर इतने फलीभूत हुए हैX कि यदि उनके फलों को खानें में हम अपनी ताउम्र लगा दे तो भी वो कम नहीं  होंगे..सच में लोग छूट बोलते हैं कि जब तक धड़कने चलती है तब  तक ही इंसान जिंदा रहता दरअसल वो धड़कने नहीं यादें  होती हैं गुजरने वाले वक्त की और जब वो यादें खत्म हो जाती हैं तो शायद हम भी...
पर चिंता मत करो जनाब हमारे पास तो यादों का इतना बड़ा साम्राज्य है शायद सिकंदर के पास जितना राज्य ना रहा होगा..इसलिए हम सब यादों के सिकंदर है..तो चले फिर से निकल पड़ते उसकी ही तरफ किसी को जीतने नहीं अपितू यादों क  जीने लिए...
कनिष्ठ उपाध्याय सच वो वो कक्षा होती  है जब हम इतने मासूम होते हैं कोई भी हमें भगवान को रूप समझ ले लेकिन उम्र बढ़ने के साथ-साथ हम क्या हो जाते हैं वो तो सौरभ मौ और राहुल ही बता सकते  हैं..हसिए मत राहुल और सौरभ मौ का नाम इसलिए नहीं लिया है कि वो शैतान बन चुके हैं अपितु केवल इसलिए क्योंकि वो पहले भी किसी हॉस्टल में पड़ चुके थे और कई बार दीपावली की छुट्टियों में घर जा चुके थे लेकिन हम सब पहले बार दीपावली पर घर जा रहे थे..(आप लोगों की आदत भी खराब हो गई है जब भी राहुल या सौरभ मौ  को नाम लेता हूं पता क्यों उसे आप शैतानियों से जोड़ने लग जाते हैं जबकी वो हमारी कक्षा के अनमोल रत्न थे जिनकी को वैल्यू नहीं थी..अब समझदार लोग फिर से मत हंसने लग जाना).
मेरे महाराष्ट्र के बंधू कॉलेज से मिले पास की जुगाड़ मे लगे थे क्योंकि उससे ट्रेन का किराया कम हो जाता था..हम सागर-दमोह वाले इससे निष्फिकर थे क्योंकि हमें तो जोधपुर-भोपाल से जाना था जिसका किराया ही 70 रुपए था..हम सबसे ज्यादा निष्फिकर राहुल था क्योंकि उसे कौनसा टिकट लेना था जो परेशान होता..हम सब तैयारियों में लगे हुए थे...जिसके चलते रोज अजमेरी गेट, इंदिरा मार्केट के चक्कर लगाए जा रहे थे..क्योंकि घर पर बहुत  कुछ ले जाना था...विवेक हमारा मुखिया था..और हम ज्यादातर उसके साथ  ही बाजार जाया करते थे क्योंकि वो थोड़ा समझदार था..इसलिए सब उसके साथ ही जाते थे...हालाकि करन निशंक,सौरभ मौ भी बड़े समझदार थे..इसलिए सौरभ मौ मुझे और राहुल को अपने साथ कपड़े लेने ले गया था..बोला था मेरी पहचान की दुकान है..सच में उस पहचान की  दुकान वाले ने मुझे औऱ राहुल को ऐसा चूना लगाया की हम फिर कभी सौरभ मौ के साथ कुछ खरीदने नहीं गये...
सजल घर ले जाने के लिए जयपुरी रिजाई लेकर आया था..जिसे देखकर स्मारक की आदत के अनुसार बहुत सारे लोग भी वो खरीदने उसी दुकान पर पहुंच गए थे...उस समय दीपेश बड़ा सीधा-साधा मालूम पड़ता...पर गुजरते वक्त ने वो करिश्मा किया दीपेश सीधे तो हुए लेकिन जलेबी की तरह..हालाकि में और दीपेश आसपास के ही थे..इसलिए में उसके साथ ही ज्यादा वक्त बिता रहा था...विनोथ, वसंत और सतीश अभि भी हमसे अच्छी तरह से घुलेमिले नहीं थे...अभि भी वो हमें दुश्मन की नजर से ही देखते थे...
मुझे वो शाम अच्छी तरह याद है जब शायद जयदीप और राहुल लोग दीपक को परेशान कर रहे थे..और बार बार उसकी बाथरूम में जाकर पानी फेक रहे थे..क्योंकि दीपक उस समय कपड़े धो रहा था...कपड़े धोने से याद आया..दीपक भाई का कपड़े धोने का अंदाज गजब का था (हसने की बात नहीं सबकी अपनी अपनी स्टाइल होती है दीपक की भी थी)खैर बात में दीपक के परेशान करने की कर रहा था..तभी में बाथरूम में पहुंचा और दीपक ने मुझसे लड़ना शुरू कर दिया मैं कुछ कहता उससे पहले ही दीपक मुझे मारने लग गया..मैं जैसे तैसे चैतन्यधाम की छत पर पहुंचा। लेकिन दीपक वहां भी आ गया और मुझे मारने लगा लेकिन मैंने भी दीपक को दो चार दिये लेकिन भाई उस दिन दीपक ने मुझे क्या मारा यार ..सच में उस दिन पता चला कि दीपक है क्या,....उतने में हमारे सीनियर सौरभ जी कर्रापुर वहां आ  गए ..जब उन्होंने हम दोनों को लड़ते देखा तो उन्होंने हमारी लड़ाई रोकने की भरकस कोशिश की लेकिन जब हम नहीं माने तो उन्होंने मुझे जोरदार चांटा जड़ दिया..जब मैं रोने लगा और बोला मुझे अकेले क्यों मारा इसकी भी तो गलती है तब उन्होंने दीपक को भी मारा....
खैर घर जाने से पहले मैंने नहीं सोचा था ऐसा दीपावली का बोनस मिलेगा...जब बात सबको पता चली तब बहुत सारे लोगों ने शिकायत करने को कहा लेकिन घर जाने की उत्सुकता ने सब भुला दिया...
हम सबको दीपावली पर घर में कैसे रहना है बताया जा रहे था...शांति जी धर्मेन्द्र जी और  प्रवीण जी हमारी मीटिंग ले रहे थे..हम सब भी हमेशा की तरह मीटिंग जल्दी खत्म होने के इंतजार ही कर रहे थे। क्योंकि उस दिन हम सब राजमंदिर जाने वाले थे..क्योंकिफिल्म देखने..हम से बहुत से लोगों ने पहली बार टॉकीज देखी थी...टॉकीज देख के बाद लगा कहा स्वर्ग में आ गये यार.....
होते होते सबकी ट्रेनों के हिसाब से सबको छोड़ने गाड़िया जाने लगी थी...स्मारक से पहली बार घर जाने की खुशी सबके चेहरे पर अलग दिखाई दे रही थी..महाराष्ट्र जाने वालों की ट्रेन पहले थी इसलिए ऊपर पुड़ी लेने सबसे पहले वहीं अजय गोरे, जोगी, चिंतामन लोग पहुंचे हम अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे....मैं राहुल-दीपेश को ध्यान से देख रहा था..दोनों की नजरे अजय गोरे की तरफ थी..वो कह रहे थे कि देखे तो मोटा कितनी पुड़ी और मिर्ची का अचार लेता था...तभी राहुल गोरे से..मोटे और ले ले 20-30 पुड़ी से का होने...घरे तो मिलत नैया खा बे इतई से ले जा...दीपेश हव रे भंडारों कर लिज्जे घरे जाके भर ले जितनी नर होय उतनी...तभी चिंतामन ने कहा...तुम्हें जलन क्यों हो रही है तुम भी ले लेना..राहुल और चिंतामन ने आंखे तरेरी ही थी..जोगी ने आकर मामला शांत किया भाई छोड़ना यार...
इस तरह हमने भी जितना हो सकता था उतना नास्ता पैक किया और पीली वाली बड़ी बस में अपनी साथी जूनियरों के साथ स्टेशन के लिए रवाना हो गए..सब एक दूसरे  से गले मिलकर दीपावली की बधाई देकर बिदा हो चुके थे...हम सब बिना रिजर्वेशन के ही थे...तभी ट्रेन का रेड सिग्नल हुआ और हम सब पहली  बार घर  को रवाना हो गये,...........
उम्र लग जाती  है अहसासों को अल्फाज देने में..
यादों के सफर इस तरह इतनी जल्दी पूरे नहीं होते......

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