स्मारक इंडियंस “यादों का कारवां” पार्ट-09
(इसे पढ़ने से पहले कृप्या भाग-1-2-3-4-5-6-7-8 जरूर पढ़े)
नजदीकियों के बाद के फासले बहुत दर्द देते हैं,जिन्हें ना आप जता सकते हैं औऱ ना ही छिपा से हैं,और हर वो नजदीकि जो आपके दिल के करीब है,वो कहीं ना कहीं दिल में इक टीस जरूर हमेशा पैंदा करती रहती है,कि वो अजीज लोग दिल के करीब तो हैं पर जिंदगी के करीब क्यों नहीं हैं..खैर एक बात औऱ भी है कि दूरियां तय कर देती हैं कि नजदीकियों में गहराई कितनी है,और शायद हम लोगों में जो आज एक दूसरे के प्रति प्रेम,समर्पण,भरोसा पनपा है,उसमें कही ना कहीं हमारी दूरियों का ही हाथ है,पर दोस्तों “अपनों से मिलन कैसा अपनों से विछड़ना क्या”वाली बात हम जानते और समझते हैं इसलिए हमारे चेहरे पर हमेशा मुस्कुराहट छाई रहती है....
माफ करना दोस्तों हमेशा विदाई का वक्त जरा भावुक कर देता है और दोस्तों के परिचय का अंतिम दिन है..इसलिए जरा भावुक होकर लिख रहा हूँ...,कोशिश करूंगा जल्द पटरी पर आ जाऊ...तो शुरू करते हैं परिचय का अंतिम सफर बचे हुए अजीज मित्रों के साथ यादों का सफरनामा.....
सजल-सचिन...सचिन..सचिन..आई लव सचिन..क्या खेलता है लड़का...मां कसम मजा आ गया..इंडिया के हर मैच के बाद इनके यही शब्द हुआ करते थे।किक्रेट से ज्यादा सचिन के लिए दीवानपन,हर मैच इन्हें देखना होता था।,फिर चाहे किसी दुकान पर खड़े होकर मैच देखना पड़े या फिर पीयूष जी,प्रवीण जी,औऱ धर्मेंद्र जी के घर किसी तरह जुगाढ़ लगाकर मैच का लुफ्त सजल उठाना पड़े।..सच में इनकी दीवानगी देखते ही बनती थी,भाई में खूबी ही ऐसी थी कि बस जिसे चाहते थे। शिद्दत से चाहते थे,खैर ये बात अलग है जिसे शिद्दत से चाहना चाहिए वो इन्हें कभी नहीं मिली,जिसकी तलाश सजल आज भी कर रहे हैं,,,पर क्या करें कम्बख्त उन्हें दिल की रानियों से ज्यादा दिल के राजा मिल जाते हैं...खैर वापिस टॉपिक पर आते हैं.सजल मध्यप्रदेश के सिंगोड़ी से आये थे,और जितना नाम इन्होंने अपने गांव का रोशन किया इनसे पहले आने वाले महानुभाव उतना ही बदनाम कर चुके थे,इसलिए जब कोई इनसे पूछा करता था।क्यों भाई तुम फलां के गांव के हो तो,सजल के चेहरे पर अजब सी झल्लाहट नजर आया करती थी,और हां दूसरी चीज इनके गांव की कुछ पहचान थी तो इनके लजबाब दांत,जो गांव के पानी मे शायद फारफोरस की मात्रा ज्यादा होने से सबके होते थे,पर भाई अपने लिए तो ऐसा लगता था,जैसे जनाब के घर में राजश्री की फैक्ट्री हो जिसके चलते गुटखों का सारा का सारा साइड इफैक्ट इनके दांतों में आ गया हो।पर भाई ने उस कमी को पूरा कर लिया है,और आज भाई के पास चमचमाते दांत हैं...अरे परेशान मत होइए ! नकली नहीं असली दांत हैं,बस पुराने दांतों पर पॉलिश और कैप लगवाय़ा है..चलिए आगे जनाब से और मुखातिब होते है..सजल हमेशा से ही जरा सा गुस्सैल,किसी से ना डरने वाला रहा है इसलिए शांति जो को कहना पड़ता था,जरा आंखों के इशारे समझा करो,,इनका रौद्र रूप मैंने कनिष्ठ में ही कॉलेज में राहुल से हुई लड़ाई के दौरान देख लिया था,,उसके बाद अपुन ने तो कभी जनाब से पंगा लेने की नहीं सोची..हां इक बात औऱ हर इंसान के मजे लेने में ये इतने पारंगत थे कि पूछिए मत अगर इसकी बानगी सुननी है तो आप निशंक और जयदीप से सुन सकते हैं क्योंकि सबसे ज्यादा प्रताड़ित ये दोनों ही प्राणी थे.।साथ ही थोड़े से रोमांटिक किस्म के इंसान जो सिर्फ दिखावे के लिए असल में तो प्यार मोहब्बत जैसी चीजों के लिए तो इनके पास जरा भी टाइम नहीं था. ।.....सजल का दूसरा पक्ष देखे तो वो इतना उजला है कि उसकी चमक देखकर आपकी आंखे चौंधया जाएंगी। बेहद होशियार,बेहद सुंदर,बेहद आकर्षक व्यक्तित्व का धनी था भाई,और तासीर तो ऐसी कि जैसे लोगों के साथ मिसे बिल्कुल वैसा ही हो जाए, अच्छों के लिए बहुत अच्छा बुरों के लिए बहुत बुरा,..यदि सजल भाई की कोई बात दिल को छू जाती है तो वो है इनके संस्कार,औऱ धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा,जिसकी रूचि इतनी की भाई ने चार परमागम याद कर लिए,साथ ही अन्य ग्रंथ भी, जिसे सुनकर आप दांतों तले उंगलियां चबाने पर मजबूर हो सकते हैं..सच में कभी कभी तो लगता था यार सही टाइम पर स्मारक आये हैं कम से कम सजल के साथ पढ़ने का मौका तो मिला,..हमेशा खुश रहने वाले सजल से भले ही लोग परेशान होते हों पर उनका दिल आज भी बच्चा ही है जिसके चलते ना तो उनकी आज तक दाड़ी मूंछ आ पाई है ना ही उनके घर वाले इन्हें अब तक बड़ा मानने को तैयार हैं,,,और हर दिन यही सोच कर जनाब दिन निकाल रहे हैं कि सौरभ मौ जैसों की शादी फिक्स हो गई मेरा नंबर कब होगा यार..................
विवेक जैन- भले ही मैंने विवेक को देर से समझा पर जब समझा तो समझ आया कि विवेक सच में..विवेक जो है उसे में शब्दों में बांधकर उसके व्यक्तित्व के पैमाने को कम नहीं करना चाहता, दूसरों का हमेशा ख्याल रखने वाला विवेक स,च बेहद नेकदिल इंसान था,कई लोगों को इस बात से जलन हुआ करती थी कि यार इस इंसान का हर कोई खास कैसे हो जाता है वो भी इतना खास कि जो वो बोले वही करने को तैयार पर बाद में मुझे समझ आया। जिसके सामने आप रो सकते हैं वो आपका सबसे अजीज मित्र हो सकता है। ,औऱ अपने भाई की यही तो क्वालिटी थी कि आप उसे अपना सबकुछ बता सकते हैं, वो आपका हर गम बांटने के लिए हमेशा तैयार है...और कुछ नहीं होगा तो राहुल की भाषा में लाइफ बॉय साबुन में पिपरमेंट डाल के बनाई गई मोदी बॉम लगाकर ये जरूर आपका दर्द कम कर देंगे...जिंदगी में कुछ ज्यादा ही सीरियस ,जिसके चलते इन्होंने हमारी लगभग हर फोटों को बिगाड़ा है,क्योंकि जनाब के चेहरे पर कभी हंसी ही नहीं हुआ करती थी,पता नहीं किस बात के लिए सीरियस थे,ना प्य़ार में धोखा खाया था,ना कोई दूसरा गम पर बाद में पता चला भाई का तो नेचर ही ऐसा है.भले ही इनको सबकी बातें पता होती हों पर इनके बारें में जानना बहुत मुश्किल काम था,हां इनकी चाल ढाल जरूर ठीक नही थी पर इनका चाल चलन इकदम बढ़िया,सच में आदर्श विद्यार्थी, जिसके लिए इन्हें स्मारक ने पुरस्कार देखकर नवाजा भी। पड़ने लिखने में हमेशा अव्वल साथ ही मुझे याद हैं धर्म की तो शायद ही कोई परीक्षा हो जिसमें भाई का नंबर ना लगा हो, हर परीक्षा में पहले नंबर पर रहे। बिल्कुल व्यवस्थित जीवन शैली,सबकुछ व्यवस्थित,इतना व्यवस्थित की कभी कभी तो लगता था।साला इसी दुनिया का इंसान है क्या ये...कुछ भी कहो भाई था बड़ा अदभुत हर चीज भाई के जीवन से सीखने लायक हुआ करती थी..विवेक भाई का एक दूसरा चेहरा भी था,जिस धर्मेंन्द्र जी ने पहचाना था,उनके ही शब्दों में लिख रहा हूँ जो उन्होंने प्रवीण से विवेक के बारे में कहे थे,इनकी क्लास में सबसे बड़ा नेता विवेक है,जो विवेक कहता है पूरी क्लास वही करती है,भले ही वो सीधा साधा सा दिखता है पर पूरी नेतागिरी की कमान उसी के हाथ में है...ये शब्द गलत नहीं थे, भाई में नेतृत्व क्षमता थी ही इतनी तगड़ी की आप को उसका साथ देना ही पड़ता खैर मैंने कई बार विवेक का विरोध किया लोगों को भी विवेक के खिलाफ भड़काया पर वो हमेशा सही होता था ,,इसलिए देर सबेर अपन भी भाई के साथ हो जाते थे...विवेक के कारण ही हम अपने सीनियर्स को स्मारक के इतिहास में सबसे बढ़िया विदाई दे पाए।औऱ भी बहुत जगह जब सबको को इकटठा करने का काम करना होता था तो विवेक को ही आगे किया जाता था,,कुल मिलाकर विवेक भाई हमारी क्लास में कांग्रेस, के कमलनाथ की तरह ही भूमिका निभाया करते थे। ,थोड़े से अक्खड़,और अवसरवादी इंसान किस्म के इंसान जिन्हें आसानी से नहीं समझा जा सकता था,...भाई में एक अदभुत गाने की कला भी थी, जिसके चलते हमारी क्लास को हर साल भजन प्रतियोगिता वाला पुरस्कार तो मिल ही जाया करता था। वैसे तो विवेक बारे में लिखने के लिए इतना कुछ है कि इनके ऊपर पीएचडी की जा सकती है....लेकिन यहां बस इतने से ही संतोष करना पड़ेगा,...फिलहाल विवेक ने स्मारक की परंपरा से हटकर एक अलग ही रास्ता चुना है और सोशल वर्क में मास्टर डिग्री हासिल की है औऱ पीएचडी भी कर रहे हैं..अपने व्यक्तित्व के हिसाब से वो जल्द ही आपको किसी अच्छे पद पर कार्य करते हुए नजर आएंगे.....
नोट- इस लेख के माध्यम से किसी को व्यक्तिगत ठेस पहुंचाना मकसद नहीं है यदि किसी को किसी बात में एतराज हो तो कृप्या सूचित करें,,उनसे माफी मांग ली जाएगी साथ ही वो पोस्ट भी सुधार ली जाएगी।
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आपकी टिप्पणियां मेरे लेखन के लिए ऑक्सीजन हैं...कृप्या इन्हें मुझसे दूर न रखें....