स्मारक इंडियंस ” यादों का कारवां’ पार्ट-3

स्मारक इंडियंस यादों का कारवांपार्ट-3
(इसे पढ़ने से पहले भाग-1 और 2 अवश्य पढ़े)

वक्त अपनी गति से बीतता है,बदलता है,यदि कुछ ठहरता है तो वो हैं यादें जो वक्त ते साथ हमने साझां की हुई होती है।और ऐसी ना जाने कितनी यादें जिंदगी होती हैं जो हमारे जीवन का लिबास बन जाती है,जिनके बिना हम अपने होने की कल्पना भी नहीं कर पाते,क्योंकि हमारा अतीत भले ही कितना कड़वा क्यों ना हो उसकी यादें हमेशा बहुत मीठी होती हैं.जो हमें देर सबेर गुदगुदाती रहती हैं।और मुझे लगता हैं स्मारक के स्वर्णिम पांच साल वहीं यादें दिलाते हैं,जिससे हम अपने वजूद को कायम रखते हैं।इसलिए मुझे याद है मेरी स्लेम बुक में अधिकतर साथियों नें जिंदगी के सबसे अच्छे पलों में स्मारक के पांच सालों का ही उल्लेख किया है।

चलिए ज्ञान का कोटा पूरा होता है औऱ हम वापिस 2005 में पहुंचते हैं उन्हीं यादों के साथ,राहुल,सौरभ मौ औऱ दीपेश का  परिचय हो चुका है,अभी कुछ हमारे अजीज मित्रों के परिचय से सफर को आगे  बढ़ाते हैं

अजय गोरे- कारे जो गोरो है एई से ईको घर वारन ने ईको नाम गोरे धर दव का...राहुल  के शब्द थे, इक दम मोटा ताजा,गबरू जवान लड़का,महाराष्ट्र से क्लास की शोभा बढ़ाने आए थे,कितनी शोभा बढ़ा पाए ये वो खुद ही जानते हैं।पर एक बात तो है क्रिकेट,बालीबॉल के जबरदस्त शौकीन,औऱ हमेशा खेलों में अव्वल रहने वाले,अजय का कोई सानी नहीं था,खेलने के नाम पर हमेशा तैयार,इकदम खुशमिजाज आदमी हमेशा मुस्कुराता हुआ चेहरा,मुझे आज भी याद आता ह। अपनी एक अलग ही पहचान रखने वाले इंसान,पर बस एक ही खामी थी इनमें जी जागरण के सुबह 6.40 वाले प्रवचन में मैंने इन्हें कभी जागते हुए नहीं देखा,अपने शॉल को ऐसे ओंड़ते थे पता ही नहीं चलता था कि जनाब प्रवचन सुन रहे हैं या फिर सो रहे हैं।खेर अब नहीं सोते होंगे,पहले तो कुंभकर्ण को भी शर्म आ जाती थी इन्हें सोते हुए देखकर  पर इन्हें कभी नहीं आई,औऱ हां इन्हें एफएम सुनने का तो इतना कीड़ा था की पूछिए मत,जब देखो तब कान में,बिड़ला मंदिर से लाया गया 50 रूपए का एफएम तो इनके कान में हमेशा हुआ करता था,इन्हें देखकर तो एक बार इनके लिए  एक शेर भी बनाया गया था हो अर्ध्द निशा का संनाटा,वन में वनचारी चरते हों,तब आकुल व्याकुल गोरे तुम एफएम तड़का सुनते हो भाई बड़ा ही गजब अंदाज था इनका इनकी हेल्थ हाइट से अपुन को तो हमेशा डर लगता था यार पर दिल के इकदम भोले इंसान,इनके बारे में जितना कहो उतना कम,कभी परीक्षाओं के समय इन्हें मैंने टेंशन लेते नहीं देखा,जैसे इन्होंने जगदगुरू पर पीएचडी कर रखी हो,सब पता था इन्हें पढ़ो या नहीं पढ़ों पास तो होना ही है औऱ कभी फेल भी नहीं हुए,इनका इक अलग ही ग्रुप हुआ करता था,पढ़ाई लिखाई में इन्हें ज्यादा इंटरेस्ट नहीं था ऐसा मुझे लगता है पर आज भाई अच्छे स्कूल में पढ़ाने का काम कर रहे है औऱ अनवरत तरक्की की औऱ अग्रसर है,और खुश भी हैं,जिन्हें आप लोगों ने अभी स्कूल के टूर के समय के फोटूओं में तो देख ही लिया होगा,भाई अजय मुझे तुम्हारा उस समय का साथ आज भी याद है जब हम फाइनल में क्रिकेट टूनामेंट खेले थे,औऱ सबके साथ छोड़ने पर भी जो तुमने मेहनत की थी,भाई लजबाब था,वो तो और तुम्हारे कारण  ही हम टूनामेंट भी जीते थे,...चलो यार बाकी लोग भी अपने बारे में पढ़ने का इंतजार कर रहे हैं तो तुमसे विदा लेता हूँ,....चलो यार वर्ना बदबू आने लगेगी यार......

निशंक- हमाय घरे अंट रूपया हैं औऱ हां हम ढोंगा के गुंडा हते पहले सो ज्यादा होशियारी मत दिओ समझे हम कौनउ से नहीं डरत समझे।अरे भाई समझ गए तुम का हो पांच साल तो झेलो है तुम्हें औऱ कितनो समझओ।भाई निशंक टीकमगढ़ से तीन लोगों में से सिर्फ यही विलुप्त होने से बचे थे। बाकी तो पहले ही साल विलुप्त हो गए थे,दिल के बहुत साफ लेकिन बेहद भावुक इंसान और बहुत इनोशेंस ,कहना चाहिए,दिल तो बच्चा है टाइप,पर जैसे भी थे,थे इकदम नेता टाइप,जिस कारण इनके पापा ने इन्हें स्मारक भेजा था,वो काम इन्होंने लड़ने झगड़ने का काम यहां भी जारी रखा,और भाई क्यों ना रखे,हिम्मत रखते है तो बकते हैं,इन्हे प्यार से लोग विवेक कहते थे,पर इनका प्यार से दीपेश ने एक और नाम रखा था फटे,फिर इसके बाद इन्होंने मेरा भी नामकरण कर दिया था किलबिष जो बदलते बदलते अब किल्लू रह गया है,इसका श्रेय इन्हे ही को जाता है।चूंकि ये मेकेनिकल इंजीनियर बनना चाहते थे इन्होंने ये बात विदाई समारोह के दौरान कही थी औऱ शायद ये इकलौते शख्स थे,जिन्हें कोड करते हुए दादा ने भी इनकी तारीफ की थी,भाई निशंक तुम आध्यात्म के इंजीनियर तो तुम बन ही गए तुम ने ही एक्सप्लेन किया था। इनके घर से आने वाली चाकलेटों पर सबका समान अधिकार होता था,जो इनके करीबी रहे है वो जानते हैं,औऱ एक बात इनकी दाड़ी मूछे तो मुझे लगता है पैदा होने के साथ इनके साथ निकल आई हों,घनी दाड़ी के धनी औऱ हमेशा एक्शपेरीमेंट करने वाले निशंक लाजबाब प्रतिभा के धनी थे.फाइनल ईयर में त्रिमूर्ति जिनालय में पढ़ाई के दौरान मुझे इनकी प्रतिभा का पता चला।औऱ बहुत सारी प्रतिभाए थी पर बहुत कम का ही उपयोग कर पाए,करन,दीपक के अभिन्न मित्र,निशंक अलग ही टाइप के इंसान थे भाई,पहले भले ही ये फटे रहे हों पर अब पूरी तरह से जुड़ गए हैं औऱ एक स्कूल में अपनी सेवाएं दे रहे हैं साथ ही दुकानदारी भी देख रहे हैं...कुल मिलाकर सफल इंसान के सब काम कर रहे हैं,इनकी कार्यक्षमता ,उत्साह गजब का है औऱ भविष्य में आप इन्हें औऱ अधिक सफल होते देखेंगे.....

अक्षय वाडकर – क्या हेंडराइटिंग है यार,बिल्कुल ऐसा लगता है जैसे छाप दिया हो किसी ने...सच में गजब का क्रिएटिव इंसान,प्रतिभा भी कूट कूट कर भरी हो जिसमें.जब हमने अपने सीनियर्स को विदाई दी थी,तो जो बाबू भाई हाल को सजाया था,उसमें अक्षय वाडकर की अहम भूमिका थी,भाई उसी समय तुम्हारा लौहा मान गया था मैं ,हमेशा से क्लाश से अलग रहते हुए भी क्लाश में बने रहे मराठी भाषा के साथ कन्नड़ भाषा पर भी समान अधिकार रखने वाले इंसान,पर अपने आपसे बिल्कुल अंजान,पता ही नहीं था इन्हें क्या करना है और ये क्या कर रहे हैं शायद इसलिए अधिकतर टाइम ये कंन्फूजन  की स्थिति में हुआ करते,इनके साथ ज्यादा मुखातिब होने का समय तो नहीं मिला इसलिए ज्यादा कुछ तो नहीं कह पाउंगा,पर इनकी हसने की अदा पर तो मैं हमेशा फिदा रहा हूँ,बस इन्हें हसने बोल दो फिर देखो अक्षय का अंदाज क्या होता था,अपनी प्रतिभा निखारने के लिए इन्होंने वेब डिजाइनिंग का कोर्स भी किया था,और अच्छा कर भी नहीं रहे थे,पर पता नहीं क्यों उस फील्ड में आगे क्यों नहीं बढ़े,खैर अभी मुंबई में अपनी सेवाएं दे रहे हैं,और आगे बढ़ने की जुगत में हैं...लेकिन भाई टूनामेंट के समय आपका हमें अकेला छोड़कर चले जाना आज भी समझ नहीं आय़ा,लेकिन उस दौरान आपके नेतृत्व क्षमता का पता तो चल गया,की आप विपक्ष की भूमिका तो अच्छे से निभा सकते हैं।लेकिन भाई तुम में बहुत प्रतिभाएं हैं उन्हें सही दिशा दो....तुम्हारी चमक अलग ही होगी..

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